शर्तों के साथ मिलेगी इच्छामृत्यु की अनुमति, जानिए क्या है पूरा मामला

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सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु की अनुमति देते हुए कहा कि जब सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिया जा सकता है तो सम्मान के साथ मरने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए। पांच जजों की पीठ ने उस याचिका पर फैसला सुनाया जिसमें इच्छा मृत्यु की वसीयत (लिविंग विल) की मांग की गई थी। लिविंग विल वह दस्तावेज होता है, जिसमें कोई व्यक्ति यह स्पष्ट करता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या कुछ ना कह पाने की स्थिति में उसका इलाज किस तरह से किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेसिया को तो कुछ शर्तों के साथ इजाजत दी, साथ ही कोर्ट ने लिविंग विल को भी मंजूरी दी। कोर्ट ने कहा कि जब मरीज लाइलाज कोमा की स्थिति तक पहुंच जाए तो उसे कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम से जीने को मजबूर नहीं किया जा सकता। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि लंबे समय तक किसी को कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम और वेंटिलेटर द्वारा जीने को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। यह फैसला पांच जजों की बेंच में लिया गया, जिसमें जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस एके सीकरी, अशोक भूषण, एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ शामिल थे। यह फैसला एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ द्वारा दायर याचिका के तहत लिया है।
पहले तरीके को एक्टिव यूथेनेसिया कहा जाता है जिसमें मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाता है, जैसे कि घातक पदार्थों का प्रयोग। इसमें मरीज को मारने के लिए इंजेक्शन का प्रयोग किया जाता है। जबकि दूसरे तरीके को पैसिव यूथेनेसिया कहा जाता है जिसमें मरीज की जान बचाने के लिए कुछ नहीं किया जाता है।

पैसिव यूथेनेसिया में कोमा के मरीज को मृत्यु तक पहुंचाने के लिए सभी प्रकार के मेडिकल ट्रीटमेंट पर रोक लगा दी जाती है। जैसे मरीज को एंटीबायोटिक्स नहीं दिए जाते जिसके बिना मरीज के मरने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसके अलावा कोमा के मरीज से दिल और फेंफड़ों की मशीन को हटा दिया जाता है। हालांकि कोर्ट ने पैसिव यूथेनेसिया को कुछ शर्तों के साथ मंजूरी दी है।

क्या है कोर्ट का कहना

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्टूबर को इस मामले से जुड़ी याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने कहा था कि गरिमापूर्ण मृत्यु पीड़ा रहित होनी चाहिए। मृत्यु के लिए कुछ ऐसे तरीकों का प्रयोग किया जाना चाहिए जिससे मरीज को सम्मानजनक तरीके से मृत्यु मिल सके। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि हम ये देखेंगे कि इच्छामृत्यु के लिए वसीयत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज हो, जिसमें दो स्वतंत्र गवाह भी शामिल हों। कोर्ट इस मामले पर सुरक्षा के साथ पूरी निगरानी करेगा ताकि कोई इसका दुरुपयोग ना कर सके।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी चिंता जताई कि आजकल मध्यम वर्ग द्वारा बुजुर्गों को बोझ समझा जाता है तो ऐसे में इसका दुरुपयोग होने की भी संभावना है। याचिका पर सुनवाई करते हुए संवैधानिक पीठ ने यह सवाल भी उठाया कि क्या किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के बिना कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम के जरिए मरने को मजबूर कर सकते हैं।
पहले तरीके को एक्टिव यूथेनेसिया कहा जाता है जिसमें मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाता है, जैसे कि घातक पदार्थों का प्रयोग। इसमें मरीज को मारने के लिए इंजेक्शन का प्रयोग किया जाता है। जबकि दूसरे तरीके को पैसिव यूथेनेसिया कहा जाता है जिसमें मरीज की जान बचाने के लिए कुछ नहीं किया जाता है।

क्या कहा केंद्र सरकार ने

केंद्र सरकार का कहना है कि सरकार अभी इच्छा मृत्यु से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार कर रही है और इस मामले पर सुझाव भी मांगे गए हैं। आपको बता दें कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इच्छा मृत्यु का विरोध करते हुए कहा था कि वह लिविंग विल का विरोध करती है लेकिन पैसिव यूथेनेसिया को कुछ सुरक्षा मानकों के साथ मंजूर कर सकती है। केंद्र ने यह भी कहा कि इसके लिए सुरक्षा मानकों के साथ ड्राफ्ट बिल तैयार है।

केंद्र सरकार ने अरुणा शानबाग मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि वह पैसिव यूथेनेसिया को स्वीकार करती है। जो कि देश के कानून के अंतर्गत है। इस तरह के मामलों में राज्य और जिला स्तर के मेडिकल बोर्ड द्वारा फैसला लिया जाएगा। साथ ही सरकार ने कहा कि यदि मरीज खुद कहता है कि वह अब मेडिकल सपोर्ट नहीं चाहता तो हम उसे मंजूर नहीं कर सकते।

याचिकाकर्ता की दलील

इच्छा मृत्यु याचिका की पैरवी करने वाले वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को इच्छा मृत्यु दी जानी चाहिए या नहीं इसका फैसला डॉक्टरों की टीम को करना चाहिए। वह टीम तय करे कि संबंधित व्यक्ति को सपोर्ट सिस्टम से बचाया जा सकता है या नहीं। वकील ने कहा कि आप किसी को जबरन जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते।

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