लॉकडाउन में मकान का किराया माफ करने के लिए लगाई गई याचिका को दिल्ली हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, ये ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोर्ट ऐसी चैरिटी नहीं कर सकता, जिसमें दूसरों के साथ अन्याय हो. कानून इसकी इजाजत नहीं देता. कोर्ट ने याचिकाकर्ता पर ₹10000 रुपये का जुर्माना लगाते हुए कहा कि यह जनहित याचिका नहीं बल्कि पब्लिसिटी के लिए लगाई गई याचिका है.
इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी. इसमें कोर्ट से कोरोना महामारी के संकट के चलते लोगों के तीन माह का किराया माफ करने की मांग की गयी थी. लेकिन कोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलीलों को खारिज करते हुए अपने आदेश में कहा कि यह पूरी तरह से पॉलिसी से जुड़ा हुआ मामला है. जिसमें जनता द्वारा चुनी हुई सरकार ही फैसले ले सकती है. पॉलिसी से जुड़े फैसले करना न्यायपालिका का काम नहीं है.
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता ने कोर्ट का बहुमूल्य समय बर्बाद किया है, इसीलिए उस पर 10 हजार रुपये का जुर्माना ठोका जा रहा है, जिसे कोर्ट खुलने के 4 हफ़्ते के भीतर याचिकाकर्ता द्वारा दिल्ली लीगल सर्विस अथॉरिटी में जमा करवाया जाए और उसका इस्तेमाल कोविड रिलीफ फंड में किया जाए.
दरअसल याचिका में कहा गया था कि अप्रैल से जून के बीच लॉकडाउन की अवधि में उन लोगों का मकान किराया माफ कर दिया जाए जिनकी आर्थिक स्थिति खराब है. इसके अलावा किराया ना देने की स्थिति में भी मकान को खाली ना कराए जाने के आदेश दिया जाए. लेकिन कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि यह दो लोगों के बीच का कॉन्ट्रैक्ट है. जिसमें मकान मालिक और किराएदार एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत बंधे हुए होते हैं. इसमें कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर सकता.
कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कर दिया कि कानून में बदलाव भी विधायिका द्वारा ही संभव है. कोर्ट उसमें भी दखल नहीं दे सकता. ऐसे में कानून कोर्ट को इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह इस तरह का कोई आदेश दे, जिससे किराएदार और मकान मालिकों के बीच का कॉन्ट्रैक्ट रद्द माना जाए और किराएदार को किराया न देना पड़े. इसके अलावा यह मकान मालिक के साथ भी नाइंसाफी होगी.
कोर्ट ने कहा कि इस याचिका में कोई भी मकान मालिक या किराएदार पक्षकार नहीं है. कोर्ट किराए से जुड़े किसी व्यक्तिगत मसले, या विवाद को तो सुन सकता है लेकिन कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकता जिससे हर मकान मालिक और किराएदार प्रभावित हो.