एक के बाद एक निर्भया, कहीं हैदराबाद में तो कहीं उन्नाव में

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सोलह दिसंबर फिर आने वाला है। 2012 के बाद हर साल आता है। और जब आता है, तो निर्भया का दर्द ताजा हो जाता है। उसकी असहनीय पीड़ा एक बार फिर मन को रौंदती है। वह तमाम सवाल फिर मस्तिष्क में अपनी परिक्रमा शुरू कर देते हैं: शहर भर में वह बस कैसे घूमती रही? रात को हर चौराहे पर जिन पुलिस वालों को पहरे पर होना चाहिए था, वे कहां थे? दर्द से कराह रही निर्भया सड़क के किनारे पड़ी रही, पर उसे किसी ने अस्पताल क्यों नहीं पहुंचाया ?
लेकिन पिछले वर्षों से अबकी साल कुछ भिन्न गुजरा। 16 दिसंबर आते-आते, देश के कोने कोने में, एक के बाद एक निर्भया, कहीं हैदराबाद में तो कहीं उन्नाव में तो कहीं रांची में तो कहीं मुजफ्फरपुर में, देश के न जाने कितने हिस्सों में, कहीं जलती, कहीं जलाई हुई, कहीं बालिग तो कहीं बच्ची, कहीं बूढ़ी तो कहीं कमसिन, कई-कई रूपों में दिखने लगीं। हर रूप भयानक व जघन्य अपराध का परिणाम। जो गुस्सा और आक्रोश 16 दिसंबर को फूटा था, वह कई दिनों तक रोज फूटता रहा। अचानक हैदराबाद में गिरफ्तार बलात्कार और जघन्य हत्या के चार आरोपी मार गिराए गए। पुलिस के अनुसार उन्होंने पुलिस की रिवाल्वर और बंदूकें छीन लीं। उनसे पुलिस पर गोलियां चलाई और पुलिस ने अपने बचाव में उन्हें मार गिराया।

इस अटपटी कहानी ने लाखों लोगों के दिलों में घर कर लिया। चार दिन पहले जिस पुलिस को हैदराबाद की आक्रोशित भीड़ पीड़िता की मौत का जिम्मेदार ठहरा रही थी, उसी पुलिस पर फूल बरसाए। पूरे विश्वास के साथ कहा गया कि पुलिस ने जो किया उससे डर पैदा होगा, कोई अब ऐसा काम करने की हिम्मत नहीं करेगा। लेकिन, दूसरे ही दिन आठ दिसंबर की रात ओडिशा के संबलपुर जिले में एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना घटी। जुर्म करने वालों की हिम्मत को कम आंका जाने का सुबूत बहुत ही जल्दी प्राप्त हो गया। गोलियों की ठांय-ठांय से संतुष्ट होना न तार्किक है, न न्यायसंगत और न ही समस्या का हल है। पिछले दो वर्षों में, उत्तर प्रदेश में अपराध पर रोक लगाने के लिए योगी जी ने पुलिस को मुठभेड़ करने की छूट दे दी है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने 5,178 एनकाउंटर किए हैं, 1,859 लोगों को घायल किया है और 103 लोगों को मार डाला है। एक को छोड़कर, सब गरीब, अल्पसंख्यक, पिछड़े और दलित। ऐसे लोग, जिनकी ओर से बोलने वाले संख्या में कम और प्रभाव में नगण्य होते हैं। उनमें से कितने दोषी थे और कितने निर्दोष, इसका पता तो कभी चल ही नहीं पाएगा। पुलिस ने उन्नाव में जलाई गई महिला और उन्नाव की उस नाबालिग पीड़िता की एफआईआर क्यों नहीं लिखी थी? नामी-गिरामी बलात्कारियों को शासक दल के नेताओं का संरक्षण क्यों प्राप्त होता है? मुजफ्फरनगर के तमाम बलात्कार के मामलों को न्यायालयों से वापस क्यों लिया गया? चिन्मयानंद के खिलाफ 2008 से चल रहा यौन शोषण का मुकदमा भी वापस लेने की कोशिश क्यों की गई?

और भी बहुत सारे सवाल हैं। पीड़ितों की सुरक्षा का इंतजाम क्यों नहीं किया जाता? गरीब, पीड़ित परिवारों को मुकदमा लड़ने कि सहायता सरकार क्यों नहीं देती? सवा लाख से अधिक मामले लंबित क्यों हैं? और हां, 16 दिसंबर आ रहा है। दिल्ली में बैठी सरकार से पूछो, निर्भया कोष की 90 फीसदी राशि क्यों नहीं खर्च की है? इनका जवाब सचेत नागरिकों को सरकारों से मांगना होगा।

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