माहे रमज़ान तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है — मुफ्ती साजिद हसनी

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रमज़ान माह में खोल दिये जाते हैं रहमत के दरबाज़े_*
_*इसी माह नाज़िल हुआ था क़ुरआन*_
_*रोज़े की हालत में इबादत करने वालों के होते हैं गुनाह माफ — मुफ्ती साजिद हसनी

बरेली,जनपद पीलिभीत विश्वभर में लाकडाउन के दिनों में रमज़ान का पाक महीना शुरू हो गया है जहां इस महीने में खुदा ए ताला रोज़दार पर अपनी रहमतों की बारिश करता है और यह माह समूची मानव ज़ाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है।
इस पाक़ महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खज़ाना लुटाता है और भूखे-प्यासे रहकर खुदा की इबादत करने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं। इस माह में दोज़ख (नरक) के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत का रास्ता खोल दिया जाता है।
इस माहे रमज़ान के बारे में नगर के प्रसिद्ध क़ादरी दारूल इफ्ताह के मुफ्ती व काज़ी मशहूर इस्लामिक स्कालर मुस्लिम धर्म गुरू हज़रत अल्लामा मुफ्ती मोहम्मद साजिद हसनी क़ादरी ने बताया कि रोज़ा अच्छी जिंदगी जीने का प्रशिक्षण है जिसमें इबादत कर खुदा की राह पर चलने वाले इंसान का ज़मीर रोज़ेदार को एक नेक इंसान के व्यक्तित्व के लिए ज़रूरी हर बात की तरबियत देता है।
मुफ्ती साजिद हसनी ने आगे कहा कि *पूरी दुनिया की कहानी भूख,प्यास और इंसानी ख़्वाहिशों के गिर्द घूमती है*
और रोज़ा इन तीनों चीज़ों पर नियंत्रण रखने की साधना है।_ *_रमज़ान का महीना तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है_*
ताकि रोज़ेदारों में भले-बुरे को समझने की सलाहियत पैदा हो।उन्होंने बताया कि रोज़े के दौरान झूठ बोलने, चुग़ली करने, किसी पर बुरी निगाह डालने, किसी की निंदा करने और हर छोटी से छोटी बुराई से दूर रहना अनिवार्य है।मुफ्ती साजिद हसनी क़ादरी ने कहा कि रोज़े रखने का असल मक़सद महज़ भूख-प्यास पर नियंत्रण रखना नहीं है बल्कि रोज़े की रूह दरअसल आत्म संयम, नियंत्रण, अल्लाह के प्रति अक़ीदत और सही राह पर चलने के संकल्प और उस पर मुस्तैदी से अमल में बसती है।उन्होंने कहा कि दुनिया के लिए रमज़ान का महीना इसलिए भी अहम है क्योंकि अल्लाह ने इसी माह में हिदायत की सबसे बड़ी किताब यानी क़ुरान शरीफ का दुनिया में अवतरण शुरू किया था।
_रहमत और बरक़त के नज़रिए से रमज़ान के महीने को तीन हिस्सों (अशरों) में बाँटा गया है। इस महीने के पहले 10 दिनों में अल्लाह अपने रोज़ेदार बंदों पर रहमतों की बारिश करता है।दूसरे अशरे में अल्लाह रोज़ेदारों के गुनाह माफ करता है और तीसरा अशरा दोज़ख की आग से निजात पाने की साधना को समर्पित किया गया है।_
_*2- हज़रते फातिमा महिलाओं के लिए आदर्श*मुफ्ती नूर मोहम्मद हसनी सोशल मीडिया पर चल रहे आनलाइन शरई अहक़ाम दर्स के दौरान रविवार को रमज़ान के फज़ाइल के साथ साथ हज़रत फातिमा की जिन्दगी पर रोशनी डाली गई मुफ्ती नूर मोहम्मद हसनी ने कहा कि हज़रत फातिमा तमाम महिलाओं के लिए आदर्श हैं उन से प्रेरणा लेकर मुस्लिम महिलाएं दीन व दुनिया को गुलज़ार बना सकती हैं, उन्होंने कहा कि हज़रत फातिमा सादगी की मिसाल थीं, 3 रमज़ान को हज़रते फातिमा ज़हरा का विसाल(स्वर्गवास/निधन) हुआ था पूरे विश्व में तीन रमज़ान को उनके नाम की फातिहा दिलाई जाती है।
मुफ्ती साजिद हसनी क़ादरी ने कहा कि सदका ए फित्र अदा करना वाजिब (ज़रूरी) है जो व्यक्ति इतना मालदार है कि उस पर ज़कात वाजिब है तो उसे अपनी ज़कात के साथ साथ व अपनी नाबालिग औलाद की तरफ से सदका ए फित्र देना ज़रूरी है उसके वाजिब होने की तीन शर्तें हैं 1 आज़ाद होना 2-मुसलमान होना 3-किसी ऐसे माल के मात्रा का मालिक होना जो असली ज़रूरत से ज़्यादा हो तो उस माल पर साल गुज़रना शर्त नहीं है और न ही माल का तिजारती होना है यहाँ तक कि नाबालिग और वह बच्चे ईद के दिन( तुलू ए आफताब) सूरज निकलने से पहले पैदा हुए हों और मज़नूनों पर भी सदका ए फित्र निकालना बाजिब ( ज़रूरी ) है सदका ए फित्र के तौर पर 2.45 किलोग्राम गेहूं या उसके आटा की कीमत अदा की जाती है बेहतर है कि कीमत अदा करें इस बक्त एक व्यक्ति पर 45 रुपये सदक़ा ए फित्र बन रहा है लिहाज़ा इन लाकडाउन के दिनों में जो आस पास के लोग परेशान हाल हैं या जो उसके हक़दार हैं जैसे ग़रीब यतीम बे सहारे उन तक रक़म पहुंचा दी जाए ताकि वह ज़रूरत मन्द लोग अपनी अपनी ज़रूरतें अपने वक्त पर पुरी कर सकें जब तक सदका ए फित्र अदा नहीं किया जाता है तब तक सारी इबादतें व रोज़े ज़मीन आसमान के बीचो बीच लटकती रहती हैं इसे अदा करने के बाद इबादतें वारगाहे इलाही में पहुंच जाती हैं और रोज़े व इबादतों में किसी किस्म की कमी रह जाती है तो सदका ए फित्र उसे पूरी कर देता है।

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